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फैमिली कोर्ट के फैसले को थोड़ा बदलते हुए सुप्रीम कोर्ट ने महिला की अपील को किया मंजूर, कहा- पति को छह महीने के भीतर महिला को 25 लाख रुपये देना होगा

सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के ‘स्त्रीधन’ से जुड़े अधिकार स्पष्ट किए हैं. साथ ही कहा है कि शादी से जुड़े केस में फैसला ‘बिल्कुल पक्के सबूत’ के आधार पर नहीं दिया जाना चाहिए…

 

नईदिल्ली (ए)। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर स्पष्ट किया है कि स्त्रीधन पूरी तरह से महिला की संपत्ति है. पति का इस पर कोई अधिकार नहीं होता. हालांकि मुश्किल समय में पति स्त्रीधन का इस्तेमाल कर सकता है लेकिन फिर पति की एक नैतिक जिम्मेदारी है कि वह स्त्रीधन या उसके बराबर का मूल्य बाद में पत्नी को लौटाए. ये बात अदालत ने केरल हाईकोर्ट के एक फैसले को पलटते हुए कही।

सुप्रीम कोर्ट ने एक पुराने फैसले (रश्मि कुमार बनाम महेश कुमार भड़ा- 1997) का भी हवाला दिया जिसमें कोर्ट ने कहा था कि स्त्रीधन कभी भी पति और पत्नी की संयुक्त संपत्ति नहीं होता है. पति का स्त्रीधन पर कोई अधिकार या स्वतंत्र नियंत्रण नहीं होता है।

क्या होता है स्त्रीधन?
24 अप्रैल के सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के अनुसार, स्त्रीधन का मतलब है ऐसी तमाम चीजें या गहने जो किसी महिला को उसकी शादी से पहले, शादी के दौरान या विदाई के समय या बाद में गिफ्ट के तौर पर मिलते हैं. ये सभी सिर्फ और सिर्फ उसी महिला की होती हैं।

यहां जिस केस की बात हो रही हैउसमें पत्नी ने ये आरोप नहीं लगाया कि उसके स्त्रीधन का कोई आपराधिक दुरुपयोग हुआ गया है. उसने एक सिविल केस दायर करके सिर्फ ये मांग की थी कि उसके खोए हुए स्त्रीधन के बराबर पैसे उसे वापस दिए जाएं. इस पर कोर्ट ने कहा कि सिविल केस में एकदम पक्के सबूत की जरूरत नहीं होती जिस तरह आपराधिक मामलों में होती है. यहां ‘संभावना के आधार पर’ यानी अंदाजा लगाकर फैसला दिया जा सकता है. इसका मतलब है कि सबूत इस बात की तरफ इशारा करने चाहिए कि शायद गड़बड़ हुई है।

पति-पत्नी के बीच क्या है विवाद?
केरल के रहने वाले अनूप और माया गोपीनाथन की शादी साल 2003 में 4 मई को हिंदू रीति-रिवाज से हुई थी. उन दोनों की ये दूसरी शादी थी. महिला विधवा थी और पुरुष का तलाक हो चुका था. महिला का कहना है कि शादी के समय उसके परिवार ने उसे 89 तोले सोना गहनों के रूप में उपहार में दिया था. इसके अलावा शादी के बाद महिला के पिता ने 26 जुलाई 2004 को दो लाख रुपये का डिमांड ड्राफ्ट भी दामाद को दिया।

महिला का दावा है कि शादी की पहली रात (4 मई 2003) को ही उसके पति ने सारे गहने सुरक्षित रखने के बहाने ले लिए. महिला का आरोप है कि उसके सारे गहनों को पति ने बेचकर अपने पुराने कर्ज चुका दिए. कुछ समय बाद आपसी मतभेद के चलते पति-पत्नी के बीच दूरियां बन गईं और उनका साथ रहना मुश्किल हो गया।

फैमिली कोर्ट पहुंचा विवाद… वहां क्या हुआ?
साल 2009 में महिला ने फैमिली कोर्ट में एक केस दायर कर दिया. इस केस में उसने पति से अपने गहने और दो लाख रुपये वापस मांगे जो उसके पिता ने दिए थे. साथ ही महिला ने तलाक के लिए भी अर्जी दी. इस पर पति ने भी महिला के खिलाफ काउंटर केस कर दिया. इसमें उसने 70 हजार रुपये मांगे जो एक सोने की अंगूठी और चेन के बराबर थे. पति का दावा है कि ये उपहार उसके परिवार शादी के दौरान महिला को रिवाज के अनुसार दिए थे।

30 मई 2011 को फैमिली कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया. कोर्ट ने माना कि पति ने वाकई में महिला के गहनों का गलत इस्तेमाल किया है और महिला को हुए इस नुकसान का हर्जाना मिलना चाहिए. कोर्ट ने आदेश दिया कि वो महिला को 89 तोले सोने की कीमत के बराबर 8 लाख 90 हजार रुपये वापस कर दें. इतना ही नहीं, ये भी आदेश दिया कि वो महिला को दो लाख रुपये भी वापस करे जो उसके पिता ने ड्राफ्ट से दिए थे. इस पर 6% सालाना ब्याज भी जोड़ने के लिए कहा. कोर्ट ने इसके लिए तीन महीने का समय दिया।

फैमिली कोर्ट ने महिला की तलाक की अर्जी भी मंजूर कर दी. पति के काउंटर केस को खारिज कर दिया. कोर्ट ने माना कि शादी के दौरान लड़के के परिवार की ओर से अंगूठी और चेन महिला को दिए थे वो एक उपहार के रूप में थे, इसलिए महिला को वो वापस करने की जरूरत नहीं है।

फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ केरल हाईकोर्ट पहुंचा पति
फैमिली कोर्ट के इस फैसले से पति पक्ष नाखुश था क्योंकि कोर्ट ने महिला की मांग मान ली थी. इसके बाद पति ने फैमिली कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ केरल हाईकोर्ट में अपील की. लेकिन उन्होंने तलाक के मामले में फैमिली कोर्ट के फैसले को चुनौती नहीं दी. हाईकोर्ट ने अपना आखिरी फैसला सुनाते हुए फैमिली कोर्ट की ओर से महिला को दी गई आंशिक राहत रद्द कर दी. हाईकोर्ट का मानना ​​था कि महिला यह साबित नहीं कर सकी कि पति ने उसके सोने के गहनों का गलत इस्तेमाल किया था।

हाईकोर्ट ने ये भी माना कि महिला के परिवार के पास सोने के गहने थे, इसका कोई कागजी सबूत भी नहीं. हाईकोर्ट ने महिला की गवाही को भी अविश्वसनीय माना और कहा कि उसकी गवाही में विरोधाभास है, पूरी कहानी सीधी नहीं है. हालांकि हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा जिसके तहत पति को दो लाख रुपये महिला को वापस लौटाने थे।

फिर ऐसे सुप्रीम कोर्ट पहुंचा मामला
केरल हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ महिला ने कई आधारों पर सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी. अब सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि क्या सही में महिला यह साबित कर पाई कि उसके सोने के गहनों को गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया था या नहीं. सुप्रीम कोर्ट इस सवाल पर भी विचार किया कि क्या हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द करके कोई गलती की है.

सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार अपना जजमेंट सुनाते हुए कहा, हमने सभी पक्षों के वकीलों की बातें सुनी हैं और हाईकोर्ट के फैसले और कोर्ट के रिकॉर्ड्स की भी अच्छी तरह से जांच की है. हमें लगता है कि कानूनी तौर पर हाईकोर्ट का फैसला सही नहीं है. हाईकोर्ट ने महिला की बातों और सबूतों पर सही से विचार नहीं किया है. ऐसा लगता है कि मानो हाईकोर्ट किसी क्रिमिनल मुकदमे की जांच कर रहा था, जहां ‘बिल्कुल पक्के सबूत’ की जरूरत होती है. कोर्ट का फैसला कल्पनाओं और अनुमानों पर आधारित है, ठोस सबूतों पर नहीं.

सुप्रीम कोर्ट ने बताया सबूत और अनुमान में क्या है अंतर
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- रूपा सोनी बनाम कमलनारायण सोनी केस में दो जजों की खंडपीठ ने एक फैसला सुनाया था जिसमें एक न्यायाधीश माननीय संजीव खन्ना जी भी थे. इस फैसले में डॉ एनजी दास्ताने नाम के एक पुराने फैसले का फिर से जिक्र किया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस मौके पर दोहराया कि शादी से जुड़े केसेज में ‘बिल्कुल पक्के सबूत’ की जरूरत नहीं होती. ऐसे मामलों में संभावनाओं पर आधारित फैसला दिया जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि सबूत और अनुमान या कयास में फर्क होता है. किसी कयास पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. केस के तथ्यों को साबित करने के लिए सीधे सादे सबूत या फिर परोक्ष सबूत होना जरूरी हैं. बिना किसी आधार के निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते.

“कुछ मामलों में दूसरे तथ्यों को सबूतों के आधार पर अनुमान से पता लगाया जा सकता है, बशर्ते ये अनुमान व्यवहारिक हों. मानो उन तथ्यों को हमने अपनी आंखों से देखा हो. अगर ऐसे कोई तथ्य नहीं हैं जिनसे हम कोई निष्कर्ष निकाल सकें, तो इसका मतलब सिर्फ कयास लगाए जा सकते हैं जो कि कोर्ट नहीं मानेगा.”

“सिविल मामलों और शादी से जुड़े मामलों (जो कि सिविल होते हैं) में ‘बिल्कुल पक्के सबूत’ नहीं मांगे जाने चाहिए. फैसला इस बात पर दिया जाता सकता है कि किसकी तरफ संभावना अधिक है. इसका मतलब है संभावनाओं की प्रबलता.”

हाईकोर्ट की क्या गलती है?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह आमतौर पर हाईकोर्ट के फैसलों में बदलाव नहीं करता, लेकिन यह कोई पक्का कायदा नहीं है.  जरूरत पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट यह जांच सकता है कि क्या हाईकोर्ट का फैसला सबूतों पर सही से विचार करने के बाद दिया गया है या उसमें कोई बड़ी गलती तो नहीं है. इस केस में सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि जिस आधार पर हाईकोर्ट ने एक पक्ष में फैसला दिया है वो गलत है.

“सबसे पहली बात हाईकोर्ट ने महिला की नीयत पर इसलिए सवाल उठाया कि उसने केस 2009 में शुरू किया जबकि पति-पत्नी 2006 में ही अलग हो चुके थे. इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए हाईकोर्ट ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि महिला और उसके पिता ने तर्क दिया था कि कुछ समय तो सुलह की कोशिशों में लग गया होगा. उन्हें उम्मीद थी कि बात बन जाएगी इसलिए तुरंत कानूनी कार्रवाई नहीं की गई. यह और भी स्वाभाविक है अगर ये किसी की दूसरी शादी है जैसा कि इस केस में है.”

“दूसरा हाईकोर्ट ने माना कि महिला यह साबित नहीं कर सकी कि उसे शादी में 89 तोले सोना मिला था और इसिलए उसका पक्ष कमजोर है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि हाईकोर्ट का यह नजरिया एकदम गलत है. जबकि पति ने पहले ही स्वीकार किया था कि महिला अपने साथ कुछ सोने का सामान लेकर आई थी जिसे उसके स्त्रीधन के तौर पर देखा जा सकता है. यह भी माना कि गहने महिला के पास नहीं, बल्कि उनके पास थे.”

“ऐसा कोई कानून नहीं है जो ये कहता है कि स्त्रीधन वापस पाने के लिए महिला को यह साबित करना होता है कि उसने गहने कहां से या कैसे खरीदे थे. यह कोई क्रिमिनल मुकदमा तो है नहीं, जहां पक्के सबूत होने चाहिए. तस्वीरों से साफ पता चलता है कि महिला ने शादी में गहने पहने थे. इसलिए महिला की बात पर शक करके हाईकोर्ट ने बड़ी गलती की.”

लालच और पति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें पुरुष पक्ष लालची लगता है क्योंकि उसने अपने ससुर (महिला के पिता) से शादी के बाद दो लाख रुपये लिए थे. ये पैसे देने की जरूरत नहीं पड़ती अगर उसने महिला के परिवार से मांगे न होते. पैसा शादी के एक साल से ज्यादा समय बाद लिया गया. ऐसा तभी हो सकता है जब कोई बहुत दबाव बनाए.

“लड़के ने भले ही अपना बचाव करते हुए कहा कि उसने पैसे नहीं मांगे और ससुराल पक्ष ने अपनी मर्जी से दिए थे. लेकिन फैमिली कोर्ट ने इस बात को नहीं माना और इस फैसले के खिलाफ लड़के ने अपील भी नहीं की थी. इतने लालची आदमी को पैसों की जरूरत होने की पूरी संभावना है. हो सकता है उसने इसीलिए गहने बेच दिए हों.”

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा- “हाईकोर्ट ने ये भी कहा कि यह कैसे संभव है कि एक नई नवेली दुल्हन से शादी की पहली ही रात को सारे गहने ले लिए जाएं. लेकिन हमें यह बात अजीब नहीं लगती. लालच एक बहुत बड़ी चीज है जिसकी वजह से लोग बड़े-बड़े अपराध भी कर देते हैं. इसलिए पति का इस तरह से अपनी पत्नी के साथ गलत करना नामुमकिन नहीं लगता. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि जब महिला पहली बार अपने ससुराल 4 मई 2003 को आई, तो उसके पास कम से कम 50 तोले सोना तो जरूर था।”

सुप्रीम कोर्ट ने क्या आदेश सुनाया?
सुप्रीम कोर्ट ने अपना अंतिम फैसला सुनाते हुए कहा- सबूतों को देखते हुए ‘संभावनाओं की प्रबलता’ के आधार पर महिला का पक्ष ज्यादा मजबूत लगता है. इसलिए हाईकोर्ट का फैसला रद्द किया जाता है. महिला का पक्ष सही माना जाता है. महिला ने 89 तोले सोने की वापसी के लिए दावा किया था, साल 2009 में उसकी कीमत 8 लाख 90 हजार रुपये थी. अब अगर सिर्फ फैमिली कोर्ट का फैसला ही स्वीकार किया जाए तो यह महिला के साथ अन्याय होगा क्योंकि समय के साथ महंगाई बहुत बढ़ गई है. कोर्ट न्याय के हित में अपने संवैधानिक अधिकार (Article 142) का इस्तेमाल करते हुए महिला को अब 25 लाख रुपये देने का आदेश देता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा, पति को छह महीने के भीतर महिला को 25 लाख रुपये देना होगा. ऐसा न करने पर उसे इस रकम पर 6% सालाना ब्याज भी देना होगा, वो भी आज के दिन से शुरू होकर जब तक वो महिला को सारा पैसा नहीं दे देता. अगर बकाया रकम नहीं चुकाई जाती तो महिला कानूनी कार्रवाई के लिए स्वतंत्र होगी।

इस तरह से फैमिली कोर्ट के फैसले को थोड़ा बदलते हुए सुप्रीम कोर्ट ने महिला की अपील को मंजूर कर दिया. लेकिन चूंकि मामला काफी पुराना है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया कि इस केस में दोनों पक्ष अपना-अपना खर्चा वहन करेंगे।

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